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इन्द्र॑वायू अ॒यं सु॒तस्तं दे॒वेभिः॑ स॒जोष॑सा। पिब॑तं दा॒शुषो॑ गृ॒हे ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indravāyū ayaṁ sutas taṁ devebhiḥ sajoṣasā | pibataṁ dāśuṣo gṛhe ||

पद पाठ

इन्द्र॑वायू॒ इति॑। अ॒यम्। सु॒तः। तम्। दे॒वेभिः॑। स॒ऽजोष॑सा। पिब॑तम्। दा॒शुषः॑। गृ॒हे ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:46» मन्त्र:6 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:22» मन्त्र:6 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सूर्य्ययुक्त वायु विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सजोषसा) तुल्य प्रीति की कामना करनेवाले (इन्द्रवायू) सूर्य्य और वायु के सदृश अध्यापक और उपदेशको ! जो (अयम्) यह (दाशुषः) दाता जन के (गृहे) गृह में (सुतः) उत्पन्न किया गया (तम्) उसको (देवेभिः) विद्वानों वा श्रेष्ठ पदार्थों के साथ जैसे (पिबतम्) पान करो, वैसे ही सूर्य्य और वायु सब से रस पीते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य और पवन सब के उपकार को निरन्तर करते हैं, वैसे ही विद्वानों को करना चाहिये ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्य्ययुक्तवायुविषयमाह ॥

अन्वय:

हे सजोषसेन्द्रवायू ! योऽयं दाशुषो गृहे सुतस्तं देवेभिस्सह यथा पिबतं तथैव सूर्य्यवायू सर्वेभ्यो रसं पिबतः ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रवायू) सूर्य्यवायू इवाध्यापकोपदेशकौ (अयम्) (सुतः) निष्पादितः (तम्) (देवेभिः) विद्वद्भिर्दिव्यैः पदार्थैर्वा (सजोषसा) समानप्रीतिकामौ (पिबतम्) (दाशुषः) दातुः (गृहे) ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽर्कपवनौ सर्वेषामुपकारं सततं कुरुतस्तथैव विद्वद्भिरनुष्ठेयम् ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य व वायू सर्वांवर निरंतर उपकार करतात, तसेच विद्वानांनी केले पाहिजे. ॥ ६ ॥